Hindi Quote in Story by Agyat Agyani Vedanta philosophy

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कथा: “जब धर्म ने खुद जीना शुरू किया” ✧

वेदान्त 2.0

नगर के बीचों-बीच एक पुराना मठ था—ऊँची-ऊँची दीवारों वाला, जहाँ सैकड़ों लोग हर दिन किसी न किसी चमत्कार की उम्मीद लेकर आते थे।
मंच सजे रहते थे, भाषण चलते रहते थे, और बाहर दानपेटियाँ खनकती रहती थीं।

उसी मठ के पीछे, जहाँ लोग कभी नहीं जाते थे, एक सूखा-सा कुआँ था।
कुएँ के किनारे एक साधारण आदमी बैठता था—न वस्त्र चमकीले, न शब्द सजे-धजे। लोग उसे भिक्षुक समझकर आगे बढ़ जाते थे।

लेकिन एक दिन शहर में अफ़वाह फैली:

“कुओं के पीछेवाला आदमी कुछ नहीं कहता—बस जीता है।
और जो उसके पास पाँच मिनट बैठता है… लौटकर बदल जाता है।”

जो लोग मंचों पर शोर मचाते थे, वे इस अफ़वाह से बेचैन हुए।
क्योंकि वह आदमी कुछ बेच नहीं रहा था।
न मंत्र, न आशा, न मोक्ष।
वह सिर्फ़ कुयेँ की धूप में आँखें मूँदकर बैठा रहता था—जीवन जैसे बिना किसी उद्देश्य के, फिर भी पूर्ण।

धीरे-धीरे लोग मठ के गलियारों से हटकर पीछे की तरफ़ चलने लगे।
मंच खाली होने लगे।
दुकानें सुनी हो गईं।
भाषणों की आवाज़ें धुँधली पड़ने लगीं।

मठ के गुरु क्रोधित हुए।
उन्होंने अपने शिष्यों को भेजा:

“जाकर पता करो, वह आदमी क्या करता है?”

शिष्य पीछे पहुँचे और उसे देखा—
वह आदमी रोटी खा रहा था।
साधारण, सूखी रोटी।
एक फटा-सा कपड़ा ओढ़े।
चेहरे पर शांत, निर्विकार भाव।

शिष्यों ने पूछा,
“तुम क्या सिखाते हो?”

वह मुस्कुराया,
“मैं कुछ नहीं। मैं केवल जीता हूँ।”

“और लोग तुमसे क्यों खिंचते चले आते हैं?”

उसने सिर उठाकर फूलों से भरी झाड़ी को देखा।
एक मधुमक्खी गूँजते हुए आकर उस पर बैठ गई।
फिर और दो।
फिर और पाँच।

वह बोला,
“क्या तुमने कभी किसी पुष्प को प्रचार करते देखा है?
वह सिर्फ़ खिलता है—इसलिए दुनिया उसके पास आती है।”

शिष्य निरुत्तर हो गए।
उन्होंने गुरु को सारा हाल बताया।

गुरु समझ गए कि खतरा किसी सिद्धि का नहीं—
खतरा जीवन का है।
जो व्यक्ति खुद जी लेता है, वह न खरीदता है, न बिकता है,
और जहाँ व्यापार नहीं, वहाँ बाज़ार ढह जाता है।

मठ में सभा बुलाई गई।
गुरु ने घोषणा की:

“उस साधारण आदमी को रोकना होगा।
अन्यथा हमारा धर्म व्यवसाय नहीं रह पाएगा।”

लेकिन उसी रात एक अजीब घटना घटी—
मठ के बाहर से भीड़ हट गई,
और लोग चुपचाप पीछे के कुएँ की तरफ़ बढ़ने लगे।

किसी ने बुलाया नहीं था।
किसी ने घोषणा नहीं की थी।
फिर भी लोग पहुँच रहे थे—मानो किसी अदृश्य खिंचाव से।

गुरु ने खिड़की से देखा:
जो भीड़ कभी उनके मंच पर बैठती थी,
वह अब एक फटे वस्त्रों वाले आदमी के चारों ओर शांत बैठी थी।
किसी प्रवचन की अपेक्षा नहीं—
बस उसके होने की उपस्थिति में।

उस रात गुरु ने समझ लिया:

धर्म तब मरता है जब वह दुकान बन जाता है।
और धर्म तब जन्म लेता है जब कोई व्यक्ति निर्भीक होकर जी लेता है।

Hindi Story by Agyat Agyani Vedanta philosophy : 112007402
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