चिंगारी
ता उम्र
ढूँढ़ता रहा
मोहब्बत की
एक चिंगारी…
कभी
सूनी गलियों में,
कभी
भीगी पलकों में,
कभी
किसी मुस्कान की
ओट में…
हर जगह
बस एक ही सवाल —
क्या यहीं है
मेरी आग?
मैं
ठिठकता रहा,
उम्मीद की
उँगली थामे,
किसी रौशन
लम्हे की
हसरत में…
फिर
एक दिन
वो आई…
बरसात सी,
ख़ामोशी सी,
किसी दुआ की
आवाज़ सी…
दिल ने कहा —
"यही है…"
आँखों ने कहा —
"अब
अँधेरा ख़त्म होगा…"
रूह ने कहा —
"अब
साँसों में
बसंत उतरेगा…"
पर
वो चिंगारी नहीं थी…
वो
दाह की आग थी…
जो
पास आई,
तो
गरमाहट नहीं,
जलन मिली…
जो
छुई,
तो
सुकून नहीं,
छाले मिले…
जो
ठहरी,
तो
घर नहीं,
शमशान बना गई…
मेरे
ख़्वाबों की
छत जलाई,
मेरी
नींदों के
दरवाज़े तोड़े,
मेरी
यादों की
किताब जलाई…
और चली गई…
पीछे छोड़ गई
हथेलियों में
राख,
आँखों में
धुआँ,
और
सीने में
एक बुझी हुई
आग…
अब…
मोहब्बत से
डर लगता है,
रौशनी से
शक होता है,
और
हर मुस्कान में
एक
शोला दिखता है…
ता उम्र
जिसे
दीया समझा,
वो
पूरी ज़िन्दगी
जला कर
चली गई…
और मैं…
अपनी ही
खाक में
खड़ा रह गया…
आर्यमौलिक