यह सच कई घरों की दीवारों में
धीरे-धीरे उभर आता है—
एक बेटा…
जो अपना नाम, अपनी चाह,
अपनी थकान तक भूल जाता है
परिवार की खुशी के लिए।
वो सुबह की पहली रोशनी सा
सबके लिए उजाला लाता है,
पर खुद अँधेरों में जी लेता है।
जितने सपने उसके अपने थे,
वो रिश्तों की सिलाई में
धीरे-धीरे टूटते चले जाते हैं।
घर की मुस्कानें
उसकी हड्डियों से उगती हैं,
और आशीर्वाद के नाम पर
उसे बस जिम्मेदारियों की
एक अंतहीन गठरी मिलती है।
फिर एक दिन…
जब घर को उसकी जरूरत नहीं रहती,
उसकी कुर्सी खिसका दी जाती है—
जैसे वो कोई आदमी नहीं,
एक पुराना औज़ार हो
जिसका इस्तेमाल खत्म हो चुका हो।
उसे ही कसूरवार कहा जाता है,
उसी के त्याग पर उँगली उठती है;
और वह चुप खड़ा रहता है—
क्योंकि शिकवा भी
उसे अपने हिस्से का हक नहीं लगता।
ऐसे बेटों की कहानी
कभी लिखी नहीं जाती,
बस उनकी खामोशियाँ
पीढ़ियों तक सुनाई देती हैं—
ये बताते हुए कि
कभी-कभी सबसे बड़ा ‘बेवकूफ’ वही होता है
जो सबसे ज्यादा दिल रखता है।
आर्यमौलिक