प्रेम का कोई मूल्य नहीं।
वह अमूल्य है।
जिसे प्रेम चाहिए —
उसे बस हृदय की सरलता चाहिए,
खुला हुआ हृदय चाहिए।
पात्रता चाहिए —
पैसा नहीं।
प्रेम किसी भी कीमत पर
खरीदा नहीं जा सकता।
जो प्रेम को दाम से जोड़ दे —
वह प्रेम नहीं,
व्यापार कर रहा है।
जब कोई कहता है —
“दाम चुकाओ, तब प्रेम पाओ”
तो समझ लो,
प्रेम नहीं —
व्यापार की दुकान खुली है।
ऐसी धारणाएँ
प्रेम की आत्मा को मार देती हैं।
धर्म का रहस्य समाप्त हो जाता है।
थोड़ी-सी प्रसिद्धि
और “गुरु” बनने की दौड़ में
आध्यात्मिकता की पूरी गहराई
विनष्ट हो जाती है।
जहाँ बुद्धि हावी होती है —
वहाँ मूल्य-सूची बनती है।
जहाँ आत्मा बोलती है —
वहाँ प्रेम निर्मूल्य बहता है,
कृपा की तरह।
लेकिन आज धर्म
व्यापार बन गया है।
इसलिए दुनिया मान बैठी है —
“पैसा होगा तो प्रेम और कृपा मिलेगी।”
यही मानसिकता
भारत की आध्यात्मिक परंपरा पर
सबसे बड़ा आघात है।
यही वह बिंदु है
जहाँ आध्यात्मिकता की
धीमी मृत्यु शुरू हुई।
जनता को पता ही नहीं —
प्रेम क्या होता है, धर्म क्या होता है।
धर्म के नाम पर
चारों ओर व्यापारी बैठे हैं।
कोई किसी को नहीं रोकता —
क्योंकि सबका व्यापार
दूसरे के झूठ पर ही टिका है।
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➤ यह है वेदांत 2.0 की दृष्टि
प्रेम प्रसाद है — उत्पाद नहीं।
कृपा दान है — सौदा नहीं।
धर्म अनुभूति है — कार्यक्रम नहीं।