आज प्रेम ने फिर जन्म लिया,
न किसी मंदिर में, न किसी महफ़िल में—
बस एक टूटे हुए दिल की धड़कनों के बीच।
हमने मोमबत्ती नहीं जलाई,
क्योंकि आज हवा बहुत ईमानदार थी।
उसने कहा—“सच्चा प्रेम जलता नहीं, जलाता है।”
तो हमने अपनी आत्मा के कोनों में
थोड़ी-थोड़ी रौशनी बाँट दी।
आज हम हर राहगीर को देख मुस्कुराएँगे,
भले ही आँखों में झील-सी नमी क्यों न हो।
हर सूखे पत्ते से कहेंगे—
“तुम भी किसी वक़्त किसी शाख़ का सपना थे।”
हर थकी हुई बयार को
अपना कंधा देंगे ठहरने को।
आज प्रेम का जन्म-दिन है,
और हम इसे मनाएँगे —
चुप रहकर, टूटकर, फिर सँवरकर।
हम रोने की कला में निपुण हो चुके हैं अब;
हर आँसू हमें भीतर और गहरा बनाता है।
कल शायद हम फिर वही होंगे —
भीड़ में एक चेहरा,
मगर आज,
हम वो दीवाने हैं
जो तन्हाई को भी सलाम करते हैं।
क्योंकि हमें मालूम है—
प्रेम का एक दिन नहीं होता,
वह हर उस घड़ी जन्म लेता है
जब कोई दिल,
दुख के बावजूद भी मुस्कुराता है।
आर्यमौलिक