हथेली में तो मैं रहती हूँ।
आज कल क़िताबों की दुनिया में,
तुम्हें जी लिया करती हूँ।
तुम हक़ीक़त में जीते हो,
मैं फैंटसी में तुम्हें पा लिया करती हूँ।।
पढ़नी आती है, तुम्हें सबकी किस्मत,
तो, जरूर मेरा भी पढ़ा होगा।
तारीख और वक़्त के हिसाब से,
पलड़ो में जरूर मुझे भी तौल होगा।।
इल्म तो होगा तुम्हे जरूर,
मेरी तीरगी से भरी,
जिंदगी और फ़सानो का।
तभी, कुछ सुनहरे पल बिखेर कर,
खुश हो लेने के लिए,
मुझे अकेला छोड़ा होगा।।
मुमकिन हैं, कभी पढ़ के,
मेरी नही, अपनी क़िस्मत,
तुम मुझे जान पाओगे।
मुकम्मिल होगा ये,
जब तारीखों के साथ,
लकीरों को भी पढ़ना सिख जाओगे।।
क्योंकि छोटी ही सही,
तुम्हारी हथेली में,
मेरे नाम की भी इक लकीर है।
तारीखे झूठी हो सकती है,
लकीरें तोें बस सच की
हीं जुबां बोलती हैं।।
और गर फिर भी,
दिलो-ओ-दिमाग में,
मैं तुम्हारे आती नहीं हूँ।
हमसफ़र, हमदम, हमराज़,
या दोस्त भी कहलाती नही हूँ।।
तो, फिर चलो,
ये सोच के ही खुश हो रहती हूँ।
तुम्हारे दिल मे न सही,
हथेली में तो मैं रहती हूँ।।
मधु शलिनी वर्मा