त्य और माया का दर्शन
1. सत्य और विज्ञान का भेद
– विज्ञान की पद्धति: पहले कल्पना, ढांचा, फिर प्राण।
– सत्य की प्रक्रिया: पहले चेतना का अंकुरण, फिर ढांचा।
– यह अंतर क्यों निर्णायक है।
2. मन और उसकी कल्पना
– मन स्वयं कल्पना है।
– देवता, भगवान, ईश्वर—मन की रचना।
– सत्य से इनका कोई सम्बन्ध नहीं।
3. मुक्ति का भ्रम
– मुक्ति का असली अर्थ: कल्पना का अंत।
– लेकिन मन मुक्ति की भी छवि गढ़ लेता है।
– इससे मन और मजबूत होता है।
4. सत्य का स्वरूप
– हवा, पानी, वृक्ष, जीव, पहाड़, बादल, झील, अन्न, हरियाली।
– ये सब सत्य की उपज हैं, इन्हें प्रेम करना है।
– इन्हें कल्पना से सजाना या गढ़ना आवश्यक नहीं।
5. कल्पना का पोषण और धर्म का व्यापार
– मनुष्य को सत्य से प्रेम कठिन लगता है क्योंकि उसका भोजन कल्पना है।
– धर्म सबसे बड़ा कल्पना-बाजार है।
– आत्मा, देवता, मुक्ति—सब बिकाऊ कल्पनाएँ।
– यही माया है।
6. नास्तिकता का भ्रम
– नास्तिक जड़ और भोग में अटक जाता है।
– भोग और नशा तोड़े जा सकते हैं,
पर कल्पना के जाल को देख पाना कठिन है।
7. धर्म का पाखंड
– जब मनुष्य के पास काम/व्यवसाय न हो,
तो धर्म-व्यापार में लगकर आर्थिक स्थिति सुधार लेता है।
– यही वर्तमान धार्मिक पाखंड है।
परिशिष्ट : शास्त्र, विज्ञान और दर्शन में प्रतिध्वनि
अध्याय 1 : सत्य और विज्ञान का भेद
तैत्तिरीय उपनिषद : “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” — सत्य का स्वरूप कल्पना या ढांचे से नहीं, चेतना से प्रकट है।
बुद्ध का प्रतित्यसमुत्पाद : सब कुछ सह-उद्भव है, कोई अलग से योजना और फिर प्राण डालने की प्रक्रिया नहीं।
आधुनिक विज्ञान : वैज्ञानिक पद्धति पहले परिकल्पना बनाती है, फिर ढांचा और प्रयोग — यही तुम्हारे कहे "कल्पना-आधारित विज्ञान" से मेल खाता है।
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अध्याय 2 : मन और उसकी कल्पना
पतंजलि योगसूत्र : “वृत्तिसारूप्यमितरत्र” — मन की वृत्तियाँ ही कल्पना बनाती हैं।
धम्मपद : “चित्तमेव पापं च चित्तमेव पवित्रं” — मन ही सब भ्रम और सत्य का स्रोत माना गया।
प्लेटो की गुफा की उपमा : मन छाया को सत्य समझ लेता है, जैसे तुमने कहा—मन स्वयं माया है।
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अध्याय 3 : मुक्ति का भ्रम
कठोपनिषद : “यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः…” — जब सभी कामनाएँ मिटती हैं तभी मुक्ति है।
बुद्ध : निर्वाण का अर्थ तृष्णा और कल्पना की लौ बुझ जाना है, न कि कोई और गढ़ा हुआ लक्ष्य।
नागार्जुन : मुक्ति कोई वस्तु नहीं, शून्यता का बोध है।
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अध्याय 4 : सत्य का स्वरूप
ईशोपनिषद : “ईशावास्यमिदं सर्वं” — जो कुछ प्रकट है वही सत्य है।
धम्मपद : “पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—ये ही मूल सत्य हैं।”
आधुनिक विज्ञान : प्राकृतिक नियम और तत्व स्वयंभू हैं, मन की परिकल्पना से नहीं बने।
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अध्याय 5 : कल्पना का पोषण और धर्म का व्यापार
गीता : “कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः” — इच्छाओं से विवेक हर लिया जाता है, धर्म भी व्यापार बन जाता है।
बुद्ध : “अप्प दीपो भव” — दूसरों की कल्पनाओं पर मत चलो।
समाजशास्त्र : धर्म को प्रतीकों और आस्थाओं का बाज़ार कहा गया है।
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अध्याय 6 : नास्तिकता का भ्रम
बुद्ध : न आस्तिक, न नास्तिक — केवल “प्रतित्यसमुत्पाद” की शिक्षा।
चार्वाक : जड़ भोग पर जोर दिया, पर कल्पना से पूरी तरह मुक्त न हो पाए।
नीत्शे : “ईश्वर मर चुका है” कहा, पर उसी स्थान पर नई कल्पना (Übermensch) रख दी।
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अध्याय 7 : धर्म का पाखंड
गीता : “वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीतिवादिनः” — जो लोग धर्म को साधन बनाते हैं, वे भ्रमित हैं।
बुद्ध : “धम्मवणिज्जा न हत्था” — धर्म का व्यापार सबसे बड़ा पाप है।
इतिहास : हर युग में धर्म को जीविका का साधन बनाया गया, यही पाखंड है।