🏵️ कविता : घर या होटल 🏵️
आजकल की भागती सड़कों पर,
रिश्ते कहीं कोनों में सिसक रहे हैं,
संस्कार धूल में दबे पड़े हैं,
और घर—बस एक होटल-सा दिख रहा है।
न माँ की रसोई की सुगंध है,
न पिता के आँचल की छाँव,
अब तो गैजेट्स की खनक सुनाई देती है,
जहाँ पहले गूँजती थी आरती की ध्वनि।
दहलीज़, जो कभी आशीर्वादों से पवित्र थी,
अब बस जूतों की खटखट से भरी है,
कमरे—गेस्ट रूम जैसे,
जहाँ हर कोई आता है, ठहरता है, और चला जाता है।
भाई-बहन की नोकझोंक खो गई,
दादी की कहानियाँ किताबों में सो गईं,
टीवी के शोर में गीत नहीं मिलते,
हर आत्मा अब अकेलेपन का गीत गुनगुनाती है।
घर की परिभाषा बदल गई—
अब यहाँ प्यार का नहीं,
बल्कि "कब आना है, कब जाना है" का हिसाब रखा जाता है।
कभी घर आत्मा का मंदिर था,
अब बस होटल का कमरा है—
जहाँ दिल चेक-इन तो करता है,
मगर अपनापन… चेक-आउट हो जाता है।
डीबी-आर्यमौलिक