✧ गीता-सूत्र श्लोक १ ✧
नाहं कर्ता न च भोक्ता, नाहं सत्यनिर्णायकः।
अस्तित्वमेव सर्वकर्ता, तस्मै समर्पये मनः॥
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📖 अर्थ :
“न मैं कर्ता हूँ, न भोग करने वाला, और न ही सत्य का निर्णायक।
सर्वकर्ता तो केवल अस्तित्व है — उसी को मैं अपना मन अर्पित करता हूँ।”
गीता-सूत्र ✧
(कर्तापन का त्याग – अकर्तापन का धर्म)
1. मैं न सही हूँ, न ग़लत —
सत्य का निर्णय अस्तित्व करता है।
2. जो स्वयं को सही कहता है,
वह भविष्य के दुःख का बीज बोता है।
3. कर्ता बनने की आकांक्षा ही बंधन है।
4. अकर्तापन ही मुक्ति है।
5. जो भीतर से सहज आता है,
वही पालन करने योग्य धर्म है।
6. परिणाम मेरा नहीं,
परिणाम अस्तित्व का है।
7. मैं साधन नहीं, साक्षी हूँ।
8. मैं करने वाला नहीं,
अस्तित्व मेरे द्वारा करता है।
9. फल की चिंता करने वाला
पहले ही बंधन में गिर चुका है।
10. कर्म निष्काम है तो शुद्ध है।
11. स्वार्थ ही कर्म को कलुषित करता है।
12. अस्तित्व के प्रवाह को समर्पित हो जाना ही योग है।
13. कर्तापन अहंकार है,
अकर्तापन आत्मा है।
14. जो “मैं करता हूँ” कहता है,
वह दुःख का निर्माता है।
15. जो “अस्तित्व करता है” देखता है,
वह आनंद का साक्षी है।
16. कर्ता बने रहना मृत्यु का बोझ ढोना है।
17. अकर्तापन में ही जीवन का नृत्य है।
18. जो परिणाम को छोड़ दे,
वही वास्तव में कर्म करता है।
19. करना तुम्हारा है,
फल अस्तित्व का है।
20. यही कृष्ण का गीता-संदेश है —
कर्म करो, कर्ता मत बनो।
21. जब कर्तापन मिटता है,
तभी आत्मा प्रकट होती है।
अज्ञात अज्ञानी