सत्य की लीला और मानव की माया ✧
मनुष्य जब सत्य की ओर बढ़ता है, तो सबसे पहले उसके सामने एक कठिनाई खड़ी होती है —
सत्य के द्वार पर पहुँचते ही उसका अहंकार समाप्त हो जाता है।
यही वह जगह है, जहाँ अधिकतर खोजी रुक जाते हैं।
क्योंकि “मरना” हर किसी को स्वीकार्य नहीं।
अहंकार मरना नहीं चाहता, इसलिए खोजी माया का सहारा लेता है।
सत्य का अनुभव मिलते ही लीला प्रकट होती है।
लीला का अर्थ है — अस्तित्व का सहज प्रवाह, पूर्णता का नृत्य।
लेकिन समस्या यह है कि मनुष्य लीला को जीना नहीं चाहता,
वह रस लेता है केवल माया से।
माया को गाली दी जाती है, उसकी आलोचना होती है,
लेकिन भीतर-ही-भीतर वही माया जीवन की डोर बनी रहती है।
यही मनुष्य की सबसे बड़ी दोहरी नीति है।
बाहर से कहता है: “हम माया से मुक्त होना चाहते हैं।”
भीतर से उसे बचाए भी रखता है।
धर्म, गुरु और समाज भी इसी राजनीति में उलझे हैं।
वे माया की बुराई तो करते हैं, पर माया को ही मजबूत भी करते हैं।
क्योंकि यदि माया पूरी तरह टूट गई, तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
याद रखो —
माया की आलोचना करना भी माया का ही नया रूप है।
जब तक भीतर से माया का रस लिया जा रहा है,
तब तक उसकी निंदा करना भी उसे पकड़े रहने का एक और तरीका है।
लीला को गाना आसान है,
पर लीला को जीना कठिन।
ईश्वर की लीला की महिमा गाना सबको भाता है,
लेकिन वास्तव में उसमें उतरने का साहस बहुत कम लोग जुटा पाते हैं।
मनुष्य भीतर से डरता है:
“यदि माया छूट गई और लीला भी न मिली तो क्या होगा?”
यही भय उसे माया की कैद में जकड़े रखता है।
लेकिन जिसने सत्य को स्वीकार कर लिया,
जिसने अहंकार को मिटने दिया,
उसके लिए लीला ही जीवन बन जाती है।
वहाँ न आलोचना बचती है, न भय।
क्योंकि जहाँ लीला है, वहाँ माया व्यर्थ हो जाती है।
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✧ निष्कर्ष ✧
सत्य की लीला वही देख सकता है,
जो माया से सचमुच मुक्त हो।
अन्यथा माया की आलोचना भी
सिर्फ माया को पकड़े रखने का नया जाल है।
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