इंसान जब किसी बात को कहता है, कोई वादा करता है, कोई लक्ष्य तय करता है, तो अक्सर उसे पूरा नहीं कर पाता। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह होता है कि वह स्वयं की नज़रों में ही महत्वपूर्ण नहीं होता। वह खुद को कमज़ोर, असमर्थ या फिर आम इंसान मान लेता है, जिसकी बातों का कोई खास महत्व नहीं है। ऐसे में जब वह खुद ही अपने विचारों, लक्ष्यों या वादों को गंभीरता से नहीं लेता, तो दुनिया भी उसे गंभीरता से नहीं लेती।
दूसरा अहम कारण यह होता है कि इंसान बहुत बार दूसरों की बातों से ज़्यादा प्रभावित हो जाता है। समाज, परिवार, दोस्त या आसपास के लोगों की सोच का उसके मन पर इतना असर हो जाता है कि वह अपने असली लक्ष्य से भटक जाता है। वह तय नहीं कर पाता कि किस दिशा में जाना है, क्या वास्तव में उसे वही करना है, जो उसने पहले सोचा था। इस असमंजस की स्थिति में वह किसी एक चीज़ के प्रति गंभीर नहीं रह पाता, और यहीं से शुरुआत होती है अधूरी बातों की, अधूरे वादों की और अधूरे सपनों की।
अब सवाल उठता है कि इंसान का ऐसा स्वभाव क्यों और कब बनता है?
जब कोई व्यक्ति लगातार असफल होता है, जब उसे बार-बार यह महसूस कराया जाता है कि वह कुछ खास नहीं है, तब उसके भीतर हीन भावना घर कर जाती है। वह खुद को कम आंकने लगता है। यही वह समय होता है जब इंसान अपने विचारों को भी कमजोर समझने लगता है। वह सोचता है कि “क्या फर्क पड़ता है, अगर मैंने कुछ कहा और वो पूरा नहीं किया?” यह सोच धीरे-धीरे उसकी आदत बन जाती है।
इसके अलावा, आज के समय में विकल्पों की भरमार ने भी इंसान को भ्रमित कर दिया है। वह किसी एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता। हर समय नया कुछ करने की चाह, comparison और सोशल मीडिया पर दिखावे की दुनिया ने इंसान की स्थिरता छीन ली है।
इसलिए ज़रूरी है कि इंसान खुद को समझे, खुद की बातों को महत्व दे और जब कुछ कहे तो उसे पूरा करने की ठान ले। यही आत्म-विश्वास की असली निशानी है।
— धीरेन्द्र सिंह बिष्ट
लेखक: मन की हार ज़िन्दगी की जीत
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