आरव और सूरज
छोटे से गाँव "रामपुर" में रहने वाला आरव एक बहुत ही जिज्ञासु और निडर लड़का था। बचपन से ही उसे घोड़ों का बहुत शौक था। जब भी वह खेतों में अपने बाबा के साथ काम पर जाता, दूर मैदान में दौड़ते हुए घोड़ों को देखकर उसकी आँखों में चमक आ जाती।
उसके बाबा, श्रीधर काका, गाँव के इकलौते घुड़सवार थे। उनका सफेद घोड़ा "सुरज" पूरे गाँव में मशहूर था। परंतु बाबा ने आरव को कभी घुड़सवारी नहीं करने दी। उनका कहना था, "घोड़ा कोई खिलौना नहीं है, बेटा। जब तक तुम जिम्मेदारी नहीं समझोगे, तब तक उसकी पीठ पर चढ़ना तुम्हारे लिए खतरे से खाली नहीं।"
लेकिन आरव ने हार नहीं मानी। उसने रोज़ सुरज की देखभाल करनी शुरू कर दी — उसे चारा देना, उसकी पीठ सहलाना, उसके खुर साफ़ करना। धीरे-धीरे सुरज भी आरव को पहचानने लगा।
एक दिन, जब काका शहर गए हुए थे, गाँव में अचानक हड़कंप मच गया। पास के जंगल से एक तेंदुआ गाँव की ओर आ गया था। सभी लोग अपने घरों में छिप गए। एक किसान का छोटा बच्चा खेत में ही रह गया था, और तेंदुआ उसकी ओर बढ़ रहा था।
आरव समझ गया कि समय बहुत कम है। उसने बिना किसी से पूछे, सुरज की पीठ पर कूदकर लगाम थामी और सीधा खेत की ओर दौड़ पड़ा। सुरज हवा से बातें करता हुआ दौड़ रहा था, और उतना ही तेज आरव का दिल धड़क रहा था लेकिन आँखों में डर नहीं, बस साहस था।
ठीक समय पर आरव ने बच्चे को उठाकर सुरज की पीठ पर बैठा लिया और दौड़ता हुआ तेंदुए से दूर ले आया। गाँववालों ने जब यह दृश्य देखा तो तालियों और जयघोष से पूरा गाँव गूंज उठा।
जैसे ही काका को यह खबर मिली, उनका सीना गर्व से तन गया। आँखों में चमक और चेहरे पर मुस्कान लिए उन्होंने आरव को घुड़सवारी की इजाज़त दे दी।
उस दिन के बाद आरव गाँव का सबसे युवा घुड़सवार बन गया, और सुरज उसका सबसे अच्छा दोस्त।