“न जी भर के देखा न कुछ बात की
बडी आरजू थी मुलाक़ात की
उजालों की परियां नहाने लगी
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
जबॉ सब समझते है जज़्बात की
मुकद्दर मिरी चश्म-ए-पुर-आब का
बरसती हुई रात बरसात की
कई साल से कुछ खबर ही नही
कहॉ दिन गुजारा कहॉ रात की”
सौजन्य: बशीर बद्र 🙏
- Umakant