जीवन में दोस्ती एक अनमोल रिश्ता है, जो खून के रिश्तों से भी अधिक गहराई लिए होता है। दोस्ती में वह अपनापन होता है जिसे शब्दों में बाँधना आसान नहीं। यह रिश्ता न किसी औपचारिकता का मोहताज होता है और न किसी शर्त का। पर कभी-कभी जीवन की परिस्थितियाँ इतनी उलझी हुई होती हैं कि सबसे करीबी दोस्त से भी हमें दूर होना पड़ता है, और वह भी बिना किसी गलती के। यह दूरी तब और भी ज्यादा कचोटती है जब वह मजबूरी बन जाती है, एक ऐसा फैसला जिसे दिल नहीं बल्कि हालात लेते हैं।
जब दोस्तों के बीच कोई विवाद या लड़ाई होती है, तो वह केवल दो लोगों तक सीमित नहीं रहती। अगर आप उन दोनों के करीब हैं, तो आप अनजाने में एक ऐसे मोड़ पर खड़े हो जाते हैं जहाँ आपको किसी एक का साथ देना पड़ता है या फिर तटस्थ रहकर खामोशी ओढ़ लेनी पड़ती है। दोनों ही विकल्प तकलीफदेह होते हैं। एक तरफ आप एक दोस्त को खोने का डर झेलते हैं, और दूसरी तरफ अपने भीतर उठते सवालों और अपराधबोध से लड़ते रहते हैं।
ऐसी स्थितियाँ अकसर कॉलेज के दिनों में या कामकाजी जीवन की शुरुआत में सामने आती हैं, जब दोस्ती का दायरा बड़ा होता है और हर रिश्ता अपने-आप में महत्वपूर्ण लगता है। दो दोस्तों की लड़ाई में तीसरे को बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है। वह चाहता है कि दोनों पक्षों को समझाए, सबकुछ पहले जैसा हो जाए, पर असल ज़िंदगी में हर बात इतनी आसान नहीं होती। कभी-कभी ऐसा लगता है कि भले ही आपने कोई गलती नहीं की, फिर भी आपको सज़ा मिल रही है।