ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों तुम तो बहुत पास रहते हो,
सच बतलाना क्या पत्थर का ही केवल ईश्वर रहता है?
मुझे मिली अधिकांश
प्रार्थनाएँ चीखों सँग सीढ़ी पर ही।
अनगिन बार
थूकती थीं वे हम सबकी इस पीढ़ी पर ही।
ओ मन्दिर के पावन दीपक तुम तो बहुत ताप सहते हो,
पता लगाना क्या वह ईश्वर भी इतनी मुश्किल सहता है?
- Umakant