मुझसे बात किए बिना ,तुम्हे नींद कैसे आ सकती है.?
उठो...और मुझसे बात करो।
कुछ हद तक उसे जैसे वह सूचना देते हुए कविता बात कर रही थी।
नरेश की पलके खुल गई।
उसने अपने ऊपर सीलिंग पर धीमी धीमी गति से चलते हुए पंखे पर नजरे गड़ाई।
अपने दाएं और मुड़ते हुए वह बिस्तर पर बैठ गया।
अपने आस पास देख रहा था।
मगर कमरा पूरी तरह से खाली था।
उसमें वह खुद अकेला ही है।
इसका अहसास होते ही...
वह आत्मग्लानि से भर गया।
बीते वक्त की वह हसीन शाम ,
जो अक्सर कविता के साथ टहलने की निकल जाता था,
वह याद नरेश के मस्तिष्क पर हावी हो रही थी।
सपना और हकीकत के उस द्वंद्व में वह इस कदर उलझ गया कि उसे दोनों में स्पष्ट अंतर दिखाई नहीं दे रहा था।