क्या सचमुच मैं बदल रही हूँ
या खुद से खुद को छल रही हूँ
पापा के अंगना माँ का आँचल छोड़
मैं कही और की रौनक बन पल रही हूँ
अपनी मुस्कान को छाए नये ढांचे में ढल रही हूँ
न जाने कितनी उलझनों के साथ मचल रही हूँ
सिमट के किस्तो में समेट चल रही हूँ
क्या सच मुच मैं बदल रहीं हूँ
मेरा अस्तित्व में हूँ पर मैं नही के
जैसे मृगजल हो रही हूँ...!!