स्त्री
एक क़िताब की तरह होती है,
जिसे देखते हैं सब,
अपनी-अपनी ज़रुरतों के,
हिसाब से।
कोई सोचता है उसे,
एक घटिया और सस्ते,
उपन्यास की तरह,
तो कोई घूरता है,
उत्सुक-सा,
एक हसीन रंगीन,
चित्रकथा समझकर।
कुछ पलटते हैं इसके रंगीन पन्ने,
अपना खाली वक़्त,
गुज़ारने के लिए,
तो कुछ रख देते हैं,
घर की लाइब्रेरी में,
सजाकर,
किसी बड़े लेखक की कृति की तरह,
स्टेटस सिम्बल बनाकर।
कुछ ऐसे भी हैं,
जो इसे रद्दी समझकर,
पटक देते हैं,
घर के किसी कोने में,
तो कुछ बहुत उदार होकर ,
पूजते हैं मन्दिर में ,
किसी आले में रखकर,
गीता क़ुरआन बाइबिल जैसे,
किसी पवित्र ग्रन्थ की तरह।
स्त्री एक क़िताब की,
तरह होती है जिसे,
पृष्ठ दर पृष्ठ कभी,
कोई पढ़ता नही
समझता नही,
आवरण से लेकर,
अंतिम पृष्ठ तक,
सिर्फ़ देखता है,
टटोलता है।
और वो रह जाती है,
अनबांची,
अनअभिव्यक्त,
अभिशप्त सी,
ब्याहता होकर भी,
कुआंरी सी।
विस्तृत होकर भी,
सिमटी सी।
छुए तन में,
एक,
अनछुआ मन लिए,
सदा ही।