न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
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बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या
बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था ।
पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर नाहक़,
आदमी कोई हमारा, दमे-तहरीर भी था ?
- Umakant