अनेक बार ऐसा समय आता है, जब जी इतना निढाल हो जाता है। इतना बोझिल और नीरस कि मन करता है कि रोया जाए। किसी ऐसे हितैषी, आत्मीय के सम्मुख, जो चुप न कराए, बल्कि कहे, रो लो। अपने अतीत पर। अपने वर्तमान पर। सबसे बढ़ कर अपने भाग्य पर। अपना रूदन तब तक न रोकना, जब तक तुम्हारी आँखों के नीचे जमी उदासी और जागती रातों के संग जगी आँखो से दुख का कालापन धुलकर बह न जाए।
-ख़ान इशरत परवेज़