दोहे
ज्वाल
गई धधक वह ज्वाल है, जब भी रहे चुनाव।
मरहम को वो छोड़ कर, बढ़ा रहे हैं घाव।।
धधक
जेठ माह में रवि-किरण, बरसाती है आग।
धधक रही है यह धरा, जीव रहे हैं भाग।।
लूक
लूक लिए दिनकर खड़ा, छाया ढूँढें लोग ।
फसल पके है खेत में, मिलता मोहन भोग।।
शीतलता
नित बरगद की छाँव में, तन-मन रहे प्रसन्न।
शीतलता सबको करे, जो थे तृषित-विपन्न।।
नदिया
नदिया रूठी गाँव से, गुमी बाँध में छोर।
परबत खड़े उदास हैं, गली-गली में शोर।।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "
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