मैं और मेरे अह्सास
वक़्त के हसीन सितम को सहते चले गए l
घड़ी की रफ़्तार के साथ बहते चले गए ll
मंज़िल की तलाश में निकल पड़े हैं और l
रास्तों के संग आगे ही बढ़ते चले गए ll
फिसलती जा रहीं हैं ज़िंन्दगी तेजी से l
ओ लहरों की धार पर रहते चले गए ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह