स्नेहिल भोर मित्रो
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भोर का नाद !!
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सपनों की दुनिया से निकल
जूझे हैं हम सब
दिशाओं के आँगन में
समेटे हैं नाद
चहचहाहट से
गोधूलि के विश्राम तक
लगी सीढ़ियों पर
चलते, गाते रहे हैं
गुनगुनाते, मुस्कुराते
पार करते रहे हैं
चीरते रहे हैं
वक्षस्थल वर्जनाओं के
बंजर भूमि में
रोपते रहे हैं
अनगिनत विशालकाय वृक्ष
जिन पर बने घोंसले---
राहगीरों ने ठिठककर
सुखाया है ताप
हम सबने बचाया है
स्वयं का व्यक्तित्व
धरा की सौंथी महक ने
अंतर में रोपा है कबीर
हम कैसे बन गए शातिर?
ये दौर प्रहारों के
रहे हैं आते - जाते
इतिहास के पन्नों पर
भरे पड़े हैं खाते
नीति के नाम पर
अनीति के चक्र
घूमते रहे हैं सदा
सुनी न हो रणभेरी
न चलती देखी हो गदा
मन की पाषाण भूमि
बन जाती है बिहरन
करने लगती है प्रश्न
उलझने लगते हैं
पेचीदा रास्ते जो
थे सीधे - सादे
हम सबके वास्ते
चुप्पी मत धरो
उठो, तय करो पुन:
उन्हीं रास्तों को
इस बार मार्ग बनाने हैं
पक्के
युवा सपनों की दृष्टि
जमी है तुम पर, हम पर
हम सब पर
आओ पकड़कर हाथ
बनाते हैं एक संग एक
संगठित घेरा
संभालेंगे उसको मिल
देखो, नन्ही आँखों में
खिलने लगा
नया सवेरा !!
स्नेहिल भोर
डॉ प्रणव भारती