विषय - मां का खाना
एक जमाना गुजर गया,
मां का आंचल नहीं पाया है।
मां के हाथ का भोजन,
वर्षो से नहीं खाया है।।
मां के सादे भोजन से,
मन तृप्त हो जाता था।
प्रेम स्नेह से जब जब खिलाती,
तो मन गदगद हो जाता था।।
मां के हाथ के भोजन को,
शायद ही कोई भूल पाया हो।
जितने प्रेम से मां खिलाती थी,
उतना प्रेम शायद ही किसी ने दिखाया हो।।
आज भी मां के हाथ का भोजन,
मुंह को स्वाद से भर जाता है।
मां जैसा स्वाद कहीं और नहीं,
सम्पूर्ण जगत यह कह जाता है।।
किरन झा (मिश्री)
-किरन झा मिश्री