साईकिल की छाया।
साईकिल की छाया में रहते हुए जीवन बीता है।
बचपन से ही मन उतावला हो जाता था कब छुट्टी
हो और हमें साइकिल चलाने को मिले। स्कूल की
छुट्टी से साईकिल की छाया का मेरा तादात्म्य
संबंध है। मुझे साईकिल चलाना पसंद है । मेरी
पसंद को घर में अहमियत दी जाती थी। इसलिए
नयी साईकिल पाकर मैं फूली नहीं समाती थी।
टन टन घंटी बजाते हुए साईकिल चलाते हुए
अपने घर के बाहर वाले रास्ते पर ही घूमती रहती थी। देखती भाई बहन को भी चलाने का मन हो रहा
है तो एक राउंड मार कर मैं घर आ जाती और भाई
को दे देती साईकिल।वो चलाता रहता था मैदान में।
स्पीड से साईकिल चलाता है वो। तो दो तीन राउंड
चलाते और फिर घर वापस आते ।
इस तरह सभी भाई बहन मिलकर देर शाम तक
साईकिल चलाते रहते थे। मां कहती अब आ भी जाओ । कल चला लेना साईकिल तुम सब। मां की
बातों को ध्यान में रखते हुए हम सब मिलकर एक
साथ घर में आते और धमा चौकड़ी मचाते हुए मां
से मांगते मुढी के लड्डू बताशे। यही होता नाश्ता
हम सबका।
साईकिल की दुनिया में फिर से रमने का इंतजार करते हम लोग और शाम की आरती करते मां के साथ। पिताजी का डंडा देखकर पढ़ने बैठ जाते थे।
वो कहते थे कि अभी साईकिल की छाया से भी दूर
रहना बच्चों नहीं तो कल साईकिल में होगा तालाबंद।
हम सब चुप हो जाते और पढ़ने लग जाते थे।
साईकिल ही है जिस पर हम सब अपनी ताकत
से चलाते हैं। कोई ईंधन नहीं बल्कि सिर्फ हवा भरनी
होती है। फिर चला लो साईकिल अपने दम पर।
घूमो फिरो साईकिल पर सवार होकर। मेरी साइकिल बड़ी सुन्दर। मनमोहक और आनंददायक जो
देते हैं मन को सुख चैन।
-Anita Sinha