"एक घड़ी इंतजार की "
वो आधी रात हम श्रोता वो आधी रात तुम वक्ता
उधड़बुन में पड़े थे कि डिनर की पूड़ी थी खस्ता
जमे महफिल में सायंकाल अर्धरात्रि प्रहर गुजरा
जो बारी अपनी आई तो नापने लगे थे सब रस्ता ।।
कश्मकश में पड़े थे हम क्या महफिल में सुनायेंगे
नशा ए नींद में जनता मनोबल हम क्या पाएंगे
किसी को चाय की बढ़ती तलब देखी तो ये सोचा
पकाऊ वक्त था कि फिर पकाऊ हम वहां निकले।।
शब्दो के तीर छंदों के कमानों से यूं गुजरे थे
किसी के शब्द भेदी बाण हृदय को छू के गुजरे थे
राष्ट्रव्यापी सामाजिक राग विविध पुष्पों के गुच्छे से
महक फैली दिशाओं में साहित्य सृजन को निकले थे।
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Shabadgunjan