बचपन में देखा था मैंने, एक चांद सलोना।
पढ़ी एक पंक्ति कविता की देखा जैसे गोल भगोना।
छोटे छोटे धब्बे वाला कहीं से गोरा कहीं से काला।
कभी बड़ा और कभी तो छोटा। कभी कटा तो कभी है मोटा।
कोई पुकारे मामा और कोई खिलौना बोले
एक शिशु जो उसके खातिर रोए और झिंझोले।
दिन भर गायब रहता है। और शाम को आता है।
अपनी चांदी सी छाया से कण कण में बस जाता है।
दुनियी सी खटिया पर लेटे दादा जी बतलाते थे।
हम सब अंतहीन होकर उसी चांद में जाते थे।
सबकी मधुर कल्पना का वह अंतिम पड़ाव होना।
बचपन में मैने देखा ..........
आज गगन के उच्चावच में एक नया इतिहास गढ़ेगा।
धरती का यह भरतखण्ड, मामा के घर में उतरेगा।
होगा नया प्रवेश और दुनिया देखेगी।
भारत का लोहा मानेगी, और अपनी आंखे सेकेगी।
-Anand Tripathi