एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में,
फूल मुस्काते रहे, छलका न पानी तक नयन में,
सब मगन अपने भजन में, था किसी को दुख न कोई,
सिर्फ़ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में,
हँस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला-
‘‘हो मुखर या मूक हाहाकार सबका है बराबर !’’
फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है ब
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