आज पुश्तैनी संपत्ति से सम्बंधित एक काम के सिलसिले में तहसील कार्यालय जाना हुआ| चूँकि सम्बंधित बाबू से बात हो चुकी थी, इसलिए मैं सीधे न्यायलय कक्ष के पास स्थित उसके कमरे में चला गया| उस समय वो किसी से बात कर रहा था| मुझे देखते ही उसने नमस्कार किया और दो मिनट रुकने का आग्रह किया| मैं न्यायलय कक्ष के आस पास ही टहलने लगा| काफी भीड़ थी वहां| हर व्यक्ति फाइलों को समेटे परेशानी में इधर उधर भाग रहा था| कुछ पत्थर की और कुछ स्टील के बेंच पड़ी हुई थीं, जिनमे से पत्थर की अधिकाँश खाली ही थीं| मेरा कोई बैठने का ख़ास इरादा नहीं था लेकिन पत्थर की बेंच पर बैठना भी मुझे मंज़ूर नहीं था| नज़र दौड़ा कर मैंने देखा एक स्टील की बेंच पर सिर्फ एक बुजुर्ग महिला बैठी हुई थी| शायद किसी पास के गाँव से तारीख़ पर आई होगी| ऐसा लगा जैसे उसने मेरी मनःस्थिति को भांप लिया| अचानक से वो उठी और मुझसे बोली “भैया, आप यहाँ बैठ जाओ”|
मेरे द्वारा संकोचवश मना करने पर उसने एक माँ की तरह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बेंच पर बैठा दिया और खुद जाकर एक कोने में फ़र्श पर बैठ गयी| कुछ पल के लिए मेरा शरीर और मेरा दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया हो| मैं बस उस शख्सियत को देखता रहा| मैं उसे नहीं जानता था, न ही वो मुझे जानती थी और शायद ज़िन्दगी में दुबारा कभी मुलाक़ात भी न हो, किन्तु उसके द्वारा मुझपर लुटाई गयी कुछ पलों की ममता ने मुझे भावविभोर कर दिया| सहसा ही मन में आया कि वास्तविकता में हमारे संस्कार और हमारी संस्कृति सिर्फ गावों में ही जीवित है| मैंने आँखें बंद कीं और सिर स्वयं ही श्रद्धा से उस महान माता के सम्मान में झुक गया|