सजल
मानव का मन कटा-कटा है.....
मानव का मन कटा-कटा है।
भागों में वह बँटा-बँटा है।।
दूजों के घर-आग लगाते,
उनके घर ऐश्वर्य हटा है।
माना खूब तरक्की कर ली,
दुश्मन द्वारे खड़ा सटा है।
पाक-सुगढ़ नापाक न होता,
खुशहाली का बिछा पटा है।
धर्म पड़ोसी का कुछ होता
प्रेम-भाव का मान घटा है।
सबकी अपनी अलग कहानी
जीवन जीकर वही रटा है।
हँसी-खुशी से जीवन जीना,
मानवता की यही छटा है।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "
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