तिब्बत के सर्वोच्च धर्मगुरु एवं भारत के धर्मशाला में स्थापित निर्वासित सरकार के प्रमुख दलाई लामा ने यह बयान देकर सबको चौंका दिया, कि तिब्बत चीन से स्वतंत्रता नहीं अपितु चीन के अधीन रहकर स्वायत्तता चाहता है| इस बयान के साथ पिछले पैंसठ सालों से संघर्षरत तिब्बतियों की रही सही उम्मीद भी ख़त्म हो गयी| अगर इतने सालों के संघर्ष का अंत चीन की ताक़त के आगे समर्पण ही था, तो ये तो तभी कर देना अच्छा था| याद रहे, कि इतने सालों का संघर्ष तिब्बत की राजनैतिक सत्ता के लिए नहीं था, अपितु चीन के हमलों से तिब्बती नस्ल और संस्कृति को बचाने के लिए था| पिछले कई दशकों में चीन ने तिब्बत के भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश को बहुत हद तक बदल ही दिया है| शायद दलाई लामा को भी यही लगा होगा कि अब इस संघर्ष से समझौते की तरफ बढ़ना ही उचित है| शायद यही वक़्त की मांग भी है|
किन्तु इस संघर्ष के दौरान जिन तिब्बतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, उनका बलिदान आखिरकार बेकार चला गया और तिब्बत से जान बचाकर आये दलाई लामा को शरण देकर एवं अपनी ज़मीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार को मंज़ूरी देकर भारत को चीन से हमेशा के लिए दुश्मनी मिली|