नज़र बचा कर..............................
रोज़ाना मुंह छिपा कर, नज़र बचा कर,
हम बाहर निकल पड़ते है,
कदमों को कभी धीमा तो कभी तेज़ कर,
हम यूँ ही चल पड़ते है............................
उस जगह पर जाकर खड़े हो जाते है,
जहाँ पर उसने मिलने को कहा था,
ना तारीख बताई, ना समय,
हमने दिनों को भी वहां जा - जा कर शाम किया था...........................................
मुद्दत हो गई वो वापस ना आया,
मान देना तो दूर खुद के सम्मान में भी सामने ना आया,
एक हम थे जो ड़र - ड़र कर वादा निभाते रहे,
लोग काना फूसी करते रहे,
हम उसे समाज समझ कर ठुकराते रहे...................................
स्वरचित
राशी शर्मा