ठोकर
ठोकर लगी वह फिर उठ खड़ा हुआ।
चोट गहरी थी फिर भी वह चला और चलता रहा।
जब प्यास लगी तो उसने खुद को पी डाला।
जब-जब परेशानियों के चट्टाने उस पर बरसी।
उसने कलम पकड़ी और तोड़ता रहा।
जब लगा की किसी को बुलाए।
पीछे मुड़ा सब ने मुंह फेर लिए थे सिवाय
उन दो इंसानों के जिन्होंने ने हमारे रास्ते को परखा नहीं।
उन्होंने सिर्फ उस रास्ते पर चल पड़ने कि सलाह दी थी।
जिसने भी उससे कहा कि मत चल उस राह बहुत काटे है।
वह पागल हंसता हुआ उन काटो भारी राह पर चलता रहा।
बहुत काटो के चुभने के बाद फूल दिखने लगे।
उन फूलों की खुशबू में इतना दम था की उन्होंने मुंह फेरे,
बैठे आदमियों को उसके पास ला खड़ा कर दिया।
वह आदमी अब वह आदमी नहीं थे,
अब वह उसके साथ बहुत सरल व्यव्हार कर रहे थे।
वह यह सब देख मंद-मंद मुस्कुरा रहा था,
तभी उसके पैरो में ठोकर लगी,
उसे उस रोज लगी ठोकर की याद हो आई।
वह हंसता रहा,
हाथ में प्याला लिए,
पागलों की तरह झूमता रहा।।
~ अभिषेक