मेरी खामोशी
खामोश रहने दो अब मुझे,
मैं कुछ भी नहीं कह पाऊंगी।
उनके चले जाने पर कैसे,
मैं अपने जी को लगाऊंगी।।
एक खामोशी सी घर कर गई,
मुख से कुछ नहीं निकल रहा।
किसी को कुछ बता नहीं सकते,
कि दिल अंदर से कितना रो रहा।।
मेरी कही हुई हर बात का,
गलत मतलब निकालते है लोग।
जो मैं समझाना चाहती हूं,
क्यों नहीं समझ पाते है लोग।।
माना हर बात के कई अर्थ होते है,
पर सही बात को लोग क्यों नहीं पकड़ते।
गलत बात जल्दी ही पकड़ कर,
अपनी बात पर हमेशा ही अकड़ते।।
मेरी बातों का भाव न समझकर,
बस अपनी ही कहना जानते हैं।
दूसरा गलत है और वही सही है,
यही बात हमेशा ही मानते हैं।।
क्या कोई नहीं है ऐसा इंसान,
जो हमें भी दिल से समझेगा।
मेरे लिखे शब्दों के भाव का,
मर्म क्या वो समझ सकेगा।।
मैं कुछ बोलूं या न बोलूं,
वो मेरी खामोशी को समझ जाए।
क्या चाहती हूं मैं तो उससे,
ये बात उसकी समझ में आए।।
ऐसा एक मित्र, दोस्त,सखी,
क्या मुझे यहां मिल पायेगा।
या ऐसे ही अब जाना पड़ेगा,
और भ्रम मेरा ये टूट जायेगा।।
किरन झा मिश्री
ग्वालियर मध्य प्रदेश
-किरन झा मिश्री