*साधो ये मुरदों का गाँव:- (निर्गुण गीत)*
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साधो ये मुरदों का गाँव
माना ये मुरदों का गाँव
ओ साधो ! चल्हि न खोजे
अमर नगरिया के रस्तन को
देह -माथे पर लीप लो साधो
बैरागी मन के चन्दन को
प्राण के झुलुआ पर बइठों
सुनिहौ का बतियावे सखियाँ
रात कटिन्हैं चंदा नीचे
भोर में नींदी --नींदी अँखियाँ
डगमग डगमग चित्त रे मल्लाह
कौन ठौर ले जाये नाव
*साधो ये मुरदों का गाँव*
उहाँ चल रे मन के जोगी
जहां पे विषयों का न घेरा
न मद –मदसर के सर्प डरावे
न जहां हँसहि काल सपेरा
न आए कोइ मंतर जादू
न समझूँ ये जोग की भासा
बस मैं निरखू उल्टी नैना
सात चकरिया एक तमाशा
दिखता एक दरस सुंदर सा
ज्यो दुल्हिन के रंगल पाँव
*साधो ये मुरदों का गाँव*
कवि :- गौतम कुमार सागर