ग़म का मारा........................
सता रही है दुनिया फिर भी सह रहा है,
मुकद्दर को इल्ज़ाम दे सब्र कर रहा है,
हंस के कहता है ज़िन्दगी से तू भी सता ले,
मै फिर नहीं लौटूंगा तेरी दुनिया में,
तू इस दफा ही सारी कसर मिटा लें...............................
ग़म का मारा मैं अब पुख्ता हो गया हूँ,
एहसास नामक चीज़ से रिहा हो गया हूँ,
पत्थर हो गया हूँ पत्थरों को देख के ही,
ज़िंदा कौन है ऐ मुझे छोड़कर,
जिसमें कभी - ना कभी थोड़े तो जज़्बात जिंदा थे ही................................
हर बार आज़मा कर मुझे कमज़ोर कर दिया,
इस जहान से मेरा मोह भंग कर दिया,
एक ही दुनिया में कई दुनिया बनी हुई है,
ज़ालिमों को तो देखों उनसे सिर्फ,
मेरी दुनिया का उजाला ही ना देखा गया.......................
स्वरचित
राशी शर्मा