आज बैठे - बैठे मन में यूँ ही एक ख़याल आया 🤔
खुद को मिटाकर आख़िर उसने क्या पाया ?
खुद के बाल सँवारने की फ़ुरसत नहीं पर,
घर को उसके जैसा कोई न सँवार पाया ।
जिम्मेदारियाँ खड़ी हो जाती सुनकर सुबह की अलार्म ,
अथक -सी लग जाती वो, नहीं एक पल का भी विश्राम ।
हर पल प्रतिस्पर्धा करती , अनगिनत काम निबटाती,
होंठों पर विजयी मुस्कान लिए वो आगे बढ़ती जाती ।
दिल में लिए कुछ सपने वो ‘मैं’ एक कामकाजी महिला हूँ ,
गृहस्थी और दफ़्तर का फ़ासला तय करती एक नैया हूँ ।
चट्टानों सी मज़बूती लिए कोमलता का एक नमूना हूँ ,
मैं ही नैया मैं ही खिवैया , हाँ , मैं कामकाजी महिला हूँ ।