बारिश और हम...................
बचपन की यादें बेशुमार,
उनमें से पानी की अनगिनत फुहार,
जिसके इंतज़ार में आँखें आसमान पर जमी रहती थी,
क्या - क्या करेंगे इस दफा,
लिस्ट पहले से ही तैयार होती थी,
बादल क्या काला हुआ, खुशी दुगनी हो गई,
बिजली क्या चमकी, आँखें भी चमक उठी,
इस बार तो खूब बारिश होगी, खुद से ये बातें होने लगी,
चलों आओं दोस्तों अब बारिश शुरू हो गई,
पहले आंगन की दहलीज़ पार करते थे,
फिर भाग कर घर की चौखट तक पहुँचते थे,
हाथों को निकाल कर बाहर,
बूंदों को महसूस करते थे,
धीरे - धीरे बारिश से मित्रता हो जाती थी,
तब हम घर की चौखट छोड़ आसमान के हो जाया करते थे,
इस तरह हम बारिश में भीगा करते थे,
छई - छपा - छई आज भी तरों ताज़ा है,
कूद - कूद कर खुद को भीगोना आज भी याद आता है,
काले बादलों में चमकती रोशनी से कब ड़रे हम,
वो चमकती रही और उसे आम सी लाईट समझ,
उसके मज़े लेते रहे हम,
कागज़ तैयार रहता था नाव बनने को,
पानी भी पूरे खुमार में था उसे बहा ले जाने को,
हम भी दोस्तों संग इस प्रतियोगिता में भाग लेते थे,
नाव मंज़िल से भटक ना जाए,
इसलिए उसे मज़बूत बनाते थे,
और कम बहाव वाले पानी में उतारा करते थे.