तुम तो सादगी की मूरत हो
मैं शब्दों से कैसे अलंकृत करूं ।
तुम तो सौंदर्य की रसधार हो
मैं विस्तृत से कैसे श्रृंगार करूं ।
तुम तो पायल की झंकृत हो
मैं कलम से कैसे वृतांत करूं ।
तुम तो केशों की वृक्षलता हो
मैं कगीं से कैसे श्रृंखला करूं ।
तुम तो चेहरे की मुस्कान हो
मैं काव्य से कैसे गंभीर करूं ।
तुम तो नैनों का काजल हो
मैं स्याही से कैसे पूर्ण करूं ।
तुम तो अधरों की मिठास हो
मैं चुंबन से कैसे स्पर्श करूं ।
तुम तो आलिंगन की ठंडक हो
मैं सुकून से कैसे पहल करूं ।
तुम तो वाणी का स्वाद हो
मैं कंठ से कैसे खास करूं ।
तुम तो कानों का झुमका हो
मैं हवा से कैसे बात करूं ।
तुम तो स्वप्नों का महल हो
मैं मिथ्या से कैसे हास्य करूं ।
तुम तो दया का सागर हो
मैं व्यथा से कैसे रूदन करूं ।
तुम तो विश्वास का जल हो
मैं प्यास से कैसे व्यंग्य करूं ।
तुम तो समर्पण की नदी हो
मैं तट से कैसे नाव करूं ।
तुम तो दृष्टि का दर्पण हो
मैं कुंडली से कैसे ठिक करूं ।
तुम तो भीतर का भाव हो
मैं स्वयं से कैसे विलग करूं ।
तुम तो स्नेह का प्रवाह हो
मैं हृदय से कैसे ग्रहण करूं ।
तुम तो तन का लावण्य हो
मैं मन से कैसे मोहित करूं ।
तुम तो पुष्प की सुगंध हो
मैं श्वास से कैसे नाक करूं ।
तुम तो पगडंडी का रास्ता हो
मैं पैदल से कैसे माप करूं ।
तुम तो कल्पना का शहर हो
मैं इच्छाएं से कैसे दूर करूं ।
तुम तो जीवन का आधार हो
मैं संयोग से कैसे पास करूं ?।
-© शेखर खराड़ी
तिथि- २३/७/२०२२, जुलाई