जो मौजूद था , है , उसे भी बनाया हृदय
में तुम्हारी इच्छा से तुम्हारे लिए , तुम्हे |
इंतजार की प्रथम सीढ़ी के नीचे खड़ी हूँ तुम्हारी ही
इच्छा समेटे |
देख रही हूँ ऊपर की ओर कुछ दूर जाकर सीढ़ियों का आकार समाप्त हो रहा है |
बार - बार सोचता है मन कही यह सीढ़ी स्पन्नभ्रम तो नही ! | तुम्हारा मुझे इतंजार हाथ मे पकड़ाकर सीढ़ी के
निकट खड़ी कर देना कही इसे मिटाना तो नही |
फिर सोचती हूँ जो मिटाना ही था तो बनाया ही क्यों?
थे तो मगर ! आशा आकारहीन थी जो इसे , इंतजार की
चुनरी से सजाया क्यों? क्यों बाँधा बंधन खोलना था तो?
क्यों निराकार से आकार ले रहे हो | आकार लिया तो किनारे क्यों खड़े हो , जो हो किनारा तो आकार का अर्थ क्या?आकार मे अर्थ क्या ?
जो मेरे लिये ही हो यहाँ ?
तो क्या पहले तुम नही थे ?
है कौन सी दूरी जिसे पार किया प्रेमवश पाँव से ?
आये थे मुझे छुड़ाने संसार के जाल से तो क्यों बैठ
गये खुद एक जाल बना कर , स्वंय को बाँध लिया ,
मुझसे ही अलग कर |
आखिर क्यों आवश्यकता पड़ी इन जाल ,जंजालो की,
भाया होगा तुम्हे ही न ? भावना से दूर जाकर |