कमबख्त़ तेरे....
ज़लिल-ए-इश्क़ में
दो पल ठहरकर ,
ग़मगीन से रहते हैं
किस किसको पूछे ?
दिल-ए-हाल का पता....
जो मुंह फुलाकर बैठे हैं
गैरों की महफ़िल में जाकर ,
आज़ खुद शर्मिंदा हैं
फ़िज़ूल की बातों पे रूठकर ,
उन्हें फुर्सत में हंसा..हंसा कर
जिंद-ए-जुनून से कैसे मनाएं ?
-© शेखर खराड़ी,
तिथि-११/६/२०२२