वक़्त मिले... तो कभी आना उसके शहर में...
ज़िंदगी ना सही... पर कुछ लम्हे बिताना उसमें...
तब जानोगे... कुछ जज़्बात अनकहे क्यूँ है...
आँखे सूनी है... फिर दिल में ये दर्द क्यूँ है...
लफ़्ज़ एक भी नही... फिर हर तरफ़ ये शोर क्यूँ है...
सपने हज़ार है... फिर भी आसमान में ये ख़ामोशी क्यूँ है...
हर तरफ़ है रोशनी... फिर भी उसके आँगन में अंधेरा क्यूँ है...
साँसे चलती है... फिर भी वो यूँ बेजान क्यूँ है...
वक़्त मिले... तो रोकना उसकी जान लेते दर्द को...
थाम लेना... उस ख़ामोश होते इंसान को...
-स्मृति