मैं और मेरे अह्सास
कविता दिन पर कविता लिख रही हूँ में l
कवि बन काग़ज़ संग खिल रही हूँ में ll
कवि के सुख दुःख की भागीदार रही हूँ में l
धायल प्रेमी की कलम संग छिल रही हूँ में ll
जरा देखो बिखरा पड़ा है वजूद यहां वहाँ l
सैया के प्यार की सुई संग सिल रही हूँ में ll
एक दौर था महफिलों का दायरा होता था l
ग़ज़लों के बादशाह संग मिल रही हूँ में ll
आज फ़िज़ाओ मे हर कही गूँजती हुईं l
कविता की लहरों संग हिल रही हूँ में ll
२१-३-२०२२
सखी दर्शिता बाबूभाई शाह