बस रोने को ही जी चाहता है
जाने क्या खोने को जी चाहता है।
बचा नही कुछ भी अब मेरा
जाने किसका होने को जी चाहता है।
लिपट कर रोती है ये रात भी रात भर
जाने किसके संग सोने को जी चाहता है।
दौलत खूब कमाया उदासी और तन्हाई भी
जाने किस खजाने को जी चाहता है।
इर्ष्या द्वेष कलह फ़सल सारी तैयार है
जाने कौन सा बीज बोने को जी चाहता है।
ओढ़ ली कफ़न खुद से रूबरू होकर
जाने कौन सी चादर ओढ़ने को जी चाहता है।
-रामानुज दरिया