विषय-छलिया कान्हा
कान्हा तो बड़ा छलिया है,
सबके मन को छलता है।
अपनी प्रेम भरी बातों से तो,
मन में सबके बसता है।।
उसकी मीठी बातें तो सुनकर,
मन मोहित हो जाता है।
उसकी मधुर मुस्कान पर तो,
दिल उसमें तो खो जाता है।।
अपने प्रेम से सबको रिझाना,
उसको तो बखूबी आता है।
प्रेम के रस में डुबकी लगवाकर,
वह तो भाग ही जाता है।।
कोई राधा तो कोई मीरा बन,
उसको मन ही मन ध्याति है।
उसकी झलक पाने की खातिर,
वर्षो इंतजार में गुजारती है।।
इंतजार की भी एक हद होती है,
ये क्यों उसको समझ नहीं आता है।
आँखे इंतजार में पथरा जाती,
दिल उसको तो भुला नहीं पाता है।।
कान्हा तुम तो कब आओगे,
यही तो दिल में प्रश्न उठता है।
तुझे देखने की खातिर तो,
आँखों से अश्क नहीं रुकता है।।
आ जाना एक बार तुम कान्हा,
दर्शन अपने तुम दे जाना।
इन सुनी-प्यासी अँखियों को,
तुम तो तृप्त करते जाना।।
गोपियाँ भी तो रस्ता निहारें,
तुम कब तक इंतजार करवाओगे।
तुम्हारे संग तो रास रचाने को,
क्या उनको तुम तड़पाओगे।।
चलो बहुत हुआ इंतजार करवाना,
अब तो सामने तुम आ जाओ।
अपने प्रिय सखा-सखियों संग,
फिर से रास तुम रचा जाओ।।
किरन झा (मिश्री)
-किरन झा मिश्री