जला प्रेम बाकी,बचा ही कहाँ है..,
जिधर जाती नजरें, धुआँ ही धुआँ है
दिखे गर तुम्हें तो ,हमें भी दिखाना,
समेटे अंधेरा ,इक गहरा कुआं है।
न ही कोई मंजिल, न कोई ठिकाना,
सम्हलना कहीं, गिर तुम भी न जाना।
पत्थर की मूरतें, हैं पत्थर के अरमां,
जज्बातें सभीं,दिल के अंतर बसाना।
ये व्यापारी महकमे,समझते नहीं हैं,
निकालोगे बाहर, हंसेगा जमाना।
रश्मों-वादों भरी,रिवाजों की दुनिया
मुहब्बत नहीं, इन्हें आता निभाना।
#मुसाफ़िरकीतरह
#मौत_से_पहले_मर_जाना
#मुहब्बत_कुछ_यों_हुई_थी_तुमसे
#सनातनी_जितेंद्र मन