संवारती हूँ खुदको जब शीशे के सामने
तब कनखियों से तकते हो तुम मुझे
नज़रें तुम्हारी इशारों में बहुत कुछ कह जाती हैं
छूते हो जब मेरे झुमके, पायल, कंगन
अपनी उंगलियों से
सुन लेती हूँ तुम्हारे दिल की आवाज़
माथे की बिंदिया को निहारते हो जब
महसूस करती हूँ उसपर होने वाले
तुम्हारे होंठों के स्पर्श को
कुछ बेतरतीब सी बिखरी ज़ुल्फ़ों को
धीरे से कान के पीछे सरकाते हुए
नज़रों से तुम इंगित करते हो
तुम्हारे नज़दीक आ जाने को
और फिर तुम संग एक खूबसूरत संगम में खो जाने को...