चंपा, परिमल, मकरंद, कली, प्रभात
1 चंपा
चंपा के शृंगार से, होता प्रभु अभिषेक।
पुष्प बड़ा मोहक लगे, लगते उनको नेक।।
2 परिमल
तन परिमल सा महकता, वाणी में हो ओज।
सभ्य सुसंस्कृति सौम्यता, से होती है खोज।।
3 मकरंद
फैल गई मकरंद जब, उपवन में चहुँ ओर।
पंछी कलरव कर रहे, भौरों का है शोर।।
4 कली
वर्तमान जो है कली, बनकर खिलता फूल।
डाली से मत तोड़िए, कभी न करिए भूल।।
5 प्रभात
कर्मयोग-पर्याय है, उठ अब हुई प्रभात।
भक्ति योग के संग में, तम को दे तू मात।।
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
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