८० के दशक का माहौल ऐसा था कि अगर किसी गाँव में कहीं ‘सावन का महीना पवन करे सोर’ होता था तो कहीं 'सागर किनारे दिल ये पुकारे' जैसा लगता था लेकिन ये तो सिनेमाई नज़रें थीं जो शहरों को दिखाना होता था। और उत्तर प्रदेश के दूर एक गांव 'समेसी' की तो अब भी वही हालत थी, 'ये धरती, ये नदिया, ये रैना और...', और इसके आगे वो सारी बातें हैं जो आप कल्पना करेंगे तो बहुत ही प्यारा लगेगा।
सुबह जब पक्षियों की चुहल और चुगल शुरू हो जाए तो समझिए कि आपने उठने में देर कर दी। अब तालाब पर जाना भी है और फिर घर के सारे काम निपटाने होंगे। ऐसे में औरतें उन्हीं तालाब पर जा सकती थीं जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस होता था। हालाँकि पता तो रहता ही है कि वो कहाँ जाएँगी, शायद इसलिए घर के मर्द निश्चिंत भी रहते थे। कुछ औरतें भले चाकू रख लेती थी लेकिन महोबा तो सीधे कुल्हाड़ी ही रखती थी। अब प्रधान की बीवी होकर इतना तो हक़ बनता है और ताज्जुब है कि प्रधान की बीवी को भी अपना इंतजाम खुद रखना पड़ता है। बस ऐसी ही एक सुबह आज भी हुई और सब तालाब में एक दूसरे के साथ खेल रहीं थीं। तभी पास की झाड़ियों में कुछ हरकत हुई और किसी के कदम बढ़ने लगे। ये कदम थे सुधांशु ठाकुर के, जो मेंटली चैलेंज्ड थे और महोबा के देवर भी। चालीसा लग चुका था लेकिन दिमाग बचपने में अटका हुआ था। इनको आता देख सबकी हालत ख़राब हुई और लगे सब एक दूसरे में छिपने-छिपाने। जिसको जैसे बना बस कपड़े लपेट कर वहाँ से निकलने में भलाई समझी।
"अरे तुम सब महोबा भाभी को छोड़कर कहाँ भागे जा रही हो?" सुधांशु ने चीखते हुए भागती हुई आकृतियों से पूछा।
लेकिन किसी ने पलट कर देखना भी सही नहीं समझा। सब बस भागी जा रही थीं। महोबा भी डरी हुई थी लेकिन भाग कर जाना कहाँ। और ५० बरस की उम्र में कितनी तेजी होगी कि निकल जाए। लेकिन सुधांशु उसे जैसे तरेर रहा था महोबा को कुछ शक हो गया। अब जिसकी नीयत पहले से ही बहकी हो, आप भले पूरे कपड़े में हो या कुछ भीगे कपड़ों में, उसे तो अपना मकसद पूरा करना ही है। (क्रमशः)