"जीवन" आकाश से आता
धरा पर 'समय' में बंध जाता
उम्र की परिधि में, ही चलता
इसलिए "जिंदगी" नाम पाता
'आगमन' होने पर भी जो रोता
'मृत्यु' का उपहार भी, वो पाता
'संसार' आखिर क्या बला है ?
न जीकर, न मरकर, समझ पाता
बहुत कुछ पाता, "जीवन" आँचल में
पर रहता, वो अपने ही 'खालीपन' में
देह-आँगन में, बिखरी धूप न देख पाता
अंधेरो की तलाश में, स्वयं को खो देता
'प्रेम' रोग से, जब धरा पर ग्रस्त हो जाता
सुख-दुःख व मोह की, मदिरा में झूम जाता
नशा जब उतरता, टूटा हुआ अपने को पाता
जाल में फंस, क्यो आया, यह भी भूल जाता ?
आशा- निराशा के, हर पहलू में करवट बदलता
अपने पराये की चादर से, स्वयं को न ढक पाता
सब कुछ देकर भी, अपने आंसू स्वयं ही बहाता
बिन अर्थ का "जीवन" है, यह कहकर ही जाता
रचियता✍️ कमल भंसाली